मौसी आ रही हैं। अब मम्मी परेशान। क्या करें। घर छोटा। गांव का रहन–सहन। ऊपर से पूरे–पूरे दिन बिजली भी नहीं रहती । ऐसे में दिल्ली वाली मौसी रहेंगी कैसे? मम्मी के चारों भाई–बहनों में मौसी सबसे अमीर। जब मौसी की शादी नहीं हुई थी, पापा भी शहर में रहते थे, तब मौसी अकसर आती थीं। लेकिन गांव में पहली बार आ रही थीं। मम्मी चाहती थीं कि कैसे भी मौसी से मना कर दें। कोई बहाना ही बना दें, बच्चों की पढ़ाई का टाइम है। इम्तिहान सिर पर हैं। मगर करें भी तो क्या, सगी छोटी बहन से मना भी, तो करें कैसे। मौसी बुरा मान गईं, तो मनाने से भी नहीं मनेंगी। और आ गईं, तो मम्मी उनके नखरे कैसे उठाएंगी। उन्हें पापा बस अड्डे से लेने गए थे। वहां से भीड़भाड़ वाले टेम्पो से बचने के लिए पापा ने अपने दोस्त की गाड़ी उधार ली थी। मौसी रास्ते भर कभी खेतों में छाई हरियाली को देखकर ताली बजातीं, कभी गाय, बकरियों के रेवड़ को दूर तक जाते देखतीं। घर आने पर जब उतरीं, तो बोलीं– ‘कितना अच्छा लगता है न गांव में। शहर में तो बस धूल और धुआं ही फांकते रहो। मौसी घर में घुसीं तो नीलू और बिल्लू उनके गले से लिपट गए। मौसी ने फौरन अपनी अटैची खोली। ढेर सारे कपड़े, खिलौने उन्हें पकड़ा दिए। मम्मी उनके लिए नाश्ता लाईं तो कहने लगीं– ‘अरे जीजी, इतना सब करने की क्या जरूरत थी। मैं तो तुम्हारे हाथ के दाल–चावल खाने आई हूं। बहुत दिन से नहीं खाए। तभी बाहर से शेरू आया और मौसी को देखकर गुर्राने लगा। यह देख नीलू ने डांटा– ‘अरे बुद्धू, मौसी हैं। शेरू मौसी के पास गया, उन्हें सूंघा और पूंछ हिलाने लगा। यह देख बिल्लू शोर मचाता बोला– ‘देखो मौसी, आपको पहचान गया। अगले दिन सवेरे जब मम्मी गाय का दूध काढ़कर आईं तो देखती क्या हैं कि मौसी तो झाड़ू लगा रही हैं। मम्मी झाड़ू उनके हाथ से खींचती बोलीं– ‘अरे गुड्डी, क्या कर रही हो। -‘वही तो जो तुम करतीं। -‘नाम बदनाम करवाओगी कि दो दिन के लिए बहन आई और उससे भी झाड़ू लगवा ली। -‘दो दिन और चार दिन क्या, झाड़ू तो रोज ही लगनी होती है न। -‘तू लगाती है, अपने घर में। -‘क्यों नहीं। मेरा तो यह स्वस्थ रहने का तरीका है। घर के काम भी समय पर हो गए और शरीर भी ठीक रहा। मम्मी ने सुना तो हैरान– ‘तू घर का काम करती है? मैं तो सोचती थी कि महारानियों की तरह बैठी हुकुम चलाती होगी। तुझे किसी बात की क्या कमी। –यही तो बात है न जीजी, आओगी तो पता चलेगा। न खुद आईं, न बच्चों को भेजा। जब से शादी हुई है, मेरा दरवाजा तो तुम्हारे और बच्चों के आने की राह ही देख रहा है। -‘गुड्डी, तू इतनी समझदार हो जाएगी, मैंने तो सोचा नहीं था। ‘हां, लेकिन तुमसे कम हूं। – कहती हुई मौसी जोर से हंसीं। शाम को जब पापा गाय के लिए कुट्टी काटने लगे तो मौसी आकर देखने लगीं। फिर पापा के पीछे पड़ीं– ‘मुझे भी मशीन चलाने दीजिए। वहां तो ये सब कर नहीं सकती। पापा ने मना किया– ‘कहीं मशीन में हाथ आ गया, तो लेने के देने पड़ जाएंगे। लेकिन जब तक खुद करके न देख लें, तब तक मौसी मानने वाली कहां। खैर, पापा मशीन में करबी लगाने लगे और मौसी जोर–जोर से ‘दम लगा के हइसा बोलकर मशीन चलाने लगीं। आसपास से गुजरते गांव वाले उन्हें देखते और मुसकराते हुए निकल जाते। मौसी का जाने का दिन आया तो वह बोलीं– ‘जीजी, अब तो साल में एक बार मैं जरूर आया करूंगी। आने दोगी न। -‘अरे गुड्डी, तू साल में एक बार आने की कह रही है, मैं तो चाहती हूं कि तू वापस ही न जाए।
– ‘जाना तो पड़ेगा। मगर जैसे ही इनके इम्तिहान खत्म हों, इन्हें लेकर चली आना। सब खूब मजे करेंगे। दोनों बहनें गले मिलकर खूब रोईं। नीलू और बिल्लू भी उदास हो गए। कहां तो मम्मी की बात सुनकर डर रहे थे कि मौसी यहां आकर हर चीज में कमी निकालेंगी। इसलिए चाहते ही नहीं थे कि वह आएं। मगर मौसी तो यहां आकर बहुत खुश हुईं।
मौसी चली गईं, तो पापा बोले– ‘तुम नाहक ही डर रही थीं। देखो तो जरा–सा भी घमंड नहीं अपने पैसे का। यहां आकर हर चीज की तारीफ। इसी को तो कहते हैं आत्मसंयम। हमें भी उससे यह सीखना चाहिए।
–क्षमा शर्मा
श्री रामचरितमानस की सीख
छुद्र नदीं भरि चली तोराई।
जस थोरेहुं धन खल इतराई।।
भूमि परत भा ढाबर पानी।
जनु जीवहिं माया लपटानी।।

रामचरितमानस के किष्किंधाकांड की इन पंक्तियों में प्रवर्षण पर्वत पर बैठकर भगवान श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के समक्ष वर्षा ऋतु में प्रकृति का सुंदर वर्णन करते हुए बहुत गंभीर उपदेश भी दे रहे हैं। मानो रावण को केंद्रित करके कह रहे थे- ‘लक्ष्मण! देखो तो बरसात के समय ये छोटी-छोटी नदियों में पानी इतना बढ़ गया है मानो आज ये अपने ही किनारों को तोड़ देंगी। जैसे अज्ञानी व्यक्ति थोड़ा सा भी धन पा जाए तो अपने बायें-दायें वालों के ही अस्तित्त्व को ही खतरा हो जाता है। और लक्ष्मण, देखो कि पानी गिरकर मिट्टïी में ऐसा मिलकर कींचड़ बन गया है, जैसे जीव माया में लिपटकर संसारी हो जाता है।Ó गोस्वामी तुलसीदास जी यह कहना चाह रहे हैं कि रावण को शंकर जी की उदारता से थोड़ी-सी समृद्धि क्या मिल गई, वह यह ही भूल गया की शंकर जी की ही आराध्या को वह अपनी भार्या बनाना चाह रहा है। यही है क्षुद्र बरसाती नदी का उतावलापन। और बरसाती पानी पक्के स्थान या तालाब में जाए तो विवेकी व्यक्ति के कार्य की तरह अवसर पर लोगों को वैशाख जेष्ठ में काम आता है, पर मिट्टी में पड़कर वह न तो अपने को उपयोगी रहने देता है और न ही मिट्टी को। वैसे ही मायाग्रस्त व्यक्ति अपना अस्तित्त्व तो समाप्त करता ही है अपितु जो उसके सान्निध्य में आता है, तो वे दोनों ही मिलकर कीचड़ बन जाते हैं, जिससे लोगों को जीवन-पथ पर चलने में और परेशानी होती है।
-संत मैथिलीशरण
[gravityform id="5" title="true" description="true" ajax="true"]