राष्ट्र सेवा में योगदान | दोस्ती की बात
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मोहन और दिलजीत पक्के दोस्त थे। मोहन जहां बहुत अच्छा टेनिस खेलता था, वहीं दिलजीत को तरह-तरह की सामान्य ज्ञान की प्रतियोगिता में भाग लेना पसंद था। एक रात दिलजीत ने फोन करके कहा- ‘मोहन, कल मेरे लिए मैथ्स की किताब लेते आना। मेरी किताब खो गई है। इस बार च्यादा पढ़ाई नहीं कर पाया। कितनी बार तो क्विज प्रतियोगिताओं में भाग लेने बाहर जाना पड़ा। तुझे तो पता ही है, अगले सोमवार से इम्तिहान हैं। अब तो लगता है, जब तक बारहवीं न हो जाए, इनमें भाग लेना ही छोड़ दूं। बहुत टाइम खोटा होता है।मोहन ने कहा- ‘तू ऐसा हर्गिज नहीं करेगा। स्कूल के लिए इतने मेडल और कौन जीत सकता है। अपना भी सीना चौड़ा हो जाता है दोस्त। क्लास में जो पढ़ाया गया है, उसके नोट्स मैं तुझे फोटोकापी कराके दे दूंगा। तू उतारेगा, तो च्यादा टाइम लगेगा। बाकी मैथ्स की किताब मैं लेता आऊंगा।किताब की दुकान मोहन के घर के पास ही थी, लेकिन कल लेकर कैसे जाएगा, स्कूल तो सवेरे सात बजे जाना पड़ता था। तब तक तो दुकान खुलती नहीं थी। उसने मोबाइल में समय देखा-पौने सात। यानी कि अगर 15 मिनट में नहीं पहुंचा तो दुकान बंद हो जाएगी। उसने फटाफट चप्पल पहनी और मां से कहा- ‘मम्मी, मैं अभी आ रहा हूं।मां पूछती ही रह गई कि इस वक्त कहां जा रहा है। बाहर निकलकर मोहन ने रिक्शे वाले को आवाज दी। दुकान के पास पहुंचकर, वह रिक्शे वाले को पैसे दे रहा था कि पास से गुजरती एक साइकिल उसमें टक्कर मारती चली गई। मोहन जोर से गिरा। दोनों हाथ छिल गए थे। खून बह रहा था। रिक्शे वाले ने उसे उठाया। कहा- ‘डाक्टर के पास ले चलूं या वापस घर?मोहन बोला- ‘भैया, बस यहीं रुके रहो। दुकानदार के पास जाकर उसने मैथ्स की किताब खरीदी। दुकानदार भी खून बहता देख बोला- ‘पास में ही डाक्टर हैं, वहां चले जाओ।मोहन बोला-‘थैंक्यू अंकल। घर जाकर मम्मी खून पर हल्दी लगा देंगी तो खून बहना बंद हो जाएगा। फिर वह हल्दी का दूध भी पिलाती हैं। इससे दर्द कम हो जाएगा।उसकी बात सुनकर दुकानदार ने मुसकराते हुए कहा- ‘सच कह रहे हो। घरेलू उपचार बहुत काम के होते हैं। हाथ हिलाकर देख लेना, कहीं हड्डी में तो चोट नहीं लगी।मोहन वापस घर पहुंचा। मां ने देखा तो बोलीं- ‘अरे क्या हुआ। गिर पड़ा। सारी बात सुनकर मां ने वही किया, जो मोहन ने दुकानदार से कहा था।सवेरे उठा तो हाथों में दर्द था, मगर इतना नहीं कि स्कूल न जा सके। मम्मी-पापा ने कहा भी कि एक दिन की छुट्टी कर ले, मगर उसने कहा कि वह स्कूल जरूर जाएगा। आज टेनिस का प्रैक्टिस मैच भी था। स्कूल पहुंचकर जब दिलजीत को सारी बात पता चली तो वह दुखी स्वर में बोला- ‘यार, न तू किताब लेने जाता और न चोट लगती।’खेलते वक्त ऐसी न जाने कितनी चोटें लगती हैं। अब तो दर्द भी ठीक है। तू दिल पर मत ले। तेरा क्या कुसूर। कसूर तो उस साइकिल वाले का है, जो गिराकर रुका तक नहीं, भाग गया।दिलजीत ने मुक्का हवा में उछालते हुए कहा- ‘मिल जाए तो दांत तोड़ दूं।’शांत गदाधारी भीम, शांत। इतना गुस्सा ठीक नहीं है। कोहनी में ही चोट लगी है, च्यादा भी लग सकती थी। च्यादा लग जाती तो क्या करता। साइकिल वाले का कचूमर निकाल देता।सुनकर दिलजीत खूब हंसा। ‘तो तू प्रैक्टिस मैच में जाएगा।दिलजीत ने पूछा तो मोहन ने कहा-‘और क्या। आया ही इसलिए हूं। एक तो तेरी किताब देनी थी। दूसरे मैच था। चल चलते हैं।जब टेनिस वाले मीणा सर ने मोहन के हाथों पर पट्टी बंधी देखी तो सारी बात पूछी। सुनकर बहुत खुश हुए। बोले- ‘तुम जैसे होनहार बच्चे मेरे छात्र हैं। हर एक को तुम्हारे जैसा ही जिम्मेदार, कर्तव्यपरायण और उत्तरदायित्व निभाने वाला होना चाहिए। तुमने लौहपुरुष सरदार पटेल के जीवन की वह घटना तो सुनी ही होगी।’कौन सी सर।दिलजीत और मोहन ने एक साथ कहा। ‘एक बार सरदार पटेल अदालत में एक केस के बारे में जिरह कर रहे थे। तभी उन्हें एक लिखित संदेश दिया गया। सरदार ने कागज को मोड़कर जेब में रख लिया। बहस पूरी करके वह बाहर निकले। अब उन्हें उस संदेश के अनुसार काम करना था। उसमें उनकी पत्नी की मृत्यु के बारे में सूचना दी गई थी। जब लोगों न उनसे पूछा कि वह उसी समय बाहर क्यों नहीं निकले, जब उन्हें पत्नी की मृत्यु का समाचार मिला तो सरदार ने कहा- अपने मुकदमे की पैरवी के लिए किसी ने मुझे फीस दी है। अगर मैं बहस अधूरी छोड़कर बाहर निकल आता तो उस व्यक्ति के साथ अन्याय करता। कल मोहन तुमने वही किया, जो सरदार ने किया था। तुम्हें चोट लग गई थी, चाहते तो दिलजीत के लिए किताब न लाते। आज छुट्टी करके प्रैक्टिस मैच न भी खेलते। जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व की यह भावना तुम्हें बहुत आगे ले जाएगी। जैसे तुमने चिंता की, उसी तरह अगर हम एक-दूसरे की चिंता करेंगे तो जानते हो क्या होगा। पूरा देश खिल उठेगा। एक बेहतरीन समाज बनेगा, जिसमें मानवीय मूल्य होंगे। सबके प्रति जिम्मेदारी यानी कि सब ठीक रहें, सब आगे बढ़ें। सब बढ़ें तो देश बढ़े। इसी को जिम्मेदारी या उत्तरदायित्व की भावना कहते हैं। और अगर सभी उत्तरदायित्व निभा सकें, तो राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान कर सकते हैैं।अब तक टीम के दूसरे बच्चे भी आ गए थे और मैच शुरू हो गया था। मोहन जिस तरह से खेल रहा था, उससे लगता ही नहीं था कि उसे चोट लगी थी। दिलजीत उसका हौसला बढ़ा रहा था और वह मैच जीत गया था।
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