बलरामपुर बहुत छोटा सा गांव है, लेकिन यहां रहने वाले रघुराज सिंह का नाम आसपास के सभी लोग जानते हैं। उन्हें माता-पिता से कोई जमीन-जायदाद नहीं मिली, लेकिन कड़े परिश्रम से उन्होंने इतना कुछ हासिल कर लिया कि उनका नाम बड़े किसानों में गिना जाता है। लेकिन इस संघर्ष में वक्त का पहिया जीवन को बहुत आगे ले आया। जब उनके दोनों बेटों मान सिंह और प्रणाम सिंह का विवाह हो गया तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि अब समय आ गया है कि हम तीर्थ यात्रा के लिए चल पड़ें। पत्नी ने भी सहमति व्यक्त की तो उन्होंने कहा कि वापस आने में एक वर्ष लग जाएगा, इसलिए वे चाहते हैं कि जमीन-जायदाद की सब जिम्मेदारी छोटे बेटे प्रणाम सिंह को सौंप दें। पत्नी ने आपत्ति जताई कि बड़े को छोड़कर छोटे को जिम्मेदारी क्यों दे रहे हैं तो उन्होंने कहा, ‘प्रणाम अच्छे-बुरे में एक-सा रहता है।Ó पत्नी ने कहा कि वह उनकी बात समझ नहीं पा रहीं, लेकिन सही यही होगा कि दोनों को आधे-आधे खेत व घर सौंपकर चलें, नहीं तो दोनों में लड़ाई होती रहेगी। रघुराज सिंह ने पत्नी की बात मान ली और दोनों बेटों को आधे-आधे खेत व घर सौंपकर एक वर्ष के लिए विदा लेकर तीर्थ यात्रा पर चल पड़े। जब उन्होंने घर छोड़ा तो दीवाली बीत चुकी थी और खेतों में फसल की बुवाई की तैयारी चल रही थी। हर वर्ष की तरह दोनों भाइयों ने खेतों में गेहूं और चने की बुवाई की। दोनों ने बहुत ही मेहनत और लगन के साथ फसलों की देखभाल की। प्रकृति भी पूरी तरह से मेहरबान थी। देखते ही देखते होली आ गई और साथ ही साथ खेतों में खड़ी फसलें भी पक गईं। इस बार जो फसल हुई थी, वह हमेशा से होने वाली फसलों से भी कहीं अधिक थी। जब गेहूं और चना कटकर आए तो दोनों भाइयों ने अपने अपने हिस्से की फसल बाजार ले जाकर बेच दी। दोनों को जो धन मिला, वह उनकी उम्मीद से कहीं अधिक था। मानसिंह तो उसे देखकर फूला न समाया लेकिन प्रणाम सिंह सहज बना रहा। एक दिन मान सिंह ने प्रणाम सिंह से कहा कि हमें तो पता ही नहीं था कि हमारे खेतों से हमें इतनी आमदनी होती है। पिताजी तो हमें हमेशा बहुत कम पैसे दिया करते थे। लेकिन अब मुझे पता चल चुका है कि हमारी कमाई कितनी च्यादा है। फिर उसने कहा कि वह अपनी पत्नी को लेकर शहर जा रहा है और कुछ दिन वहीं रहकर मौज-मस्ती करेगा। उसने प्रणाम सिंह से भी कहा कि वह उसके साथ चले, लेकिन प्रणाम सिंह ने इन्कार कर दिया। मान सिंह ने एक कार खरीदी और अपना अधिकांश वक्त शहर जाकर मौज-मस्ती में बिताने लगा। कुछ दिन तक तो वह पत्नी को साथ ले जाता रहा, लेकिन फिर उसने गांव के कुछ आवारा दोस्तों को साथ ले जाना शुरू किया और इस बीच उसे शराब पीने की आदत भी लग गई। कुछ वक्त और बीता और गर्मियां भी बीत गईं। अब गांव के सभी किसान अगली फसल की बुवाई की तैयारी करने लगे। सबने खाद और बीज खरीदें और खेतों को तैयार करना शुरू किया। सारे किसान दिन-रात आसमान की ओर देखते रहते कि कब पहली बारिश हो और वे खेतों में बीज डालें। लेकिन पूरा सावन बीत गया और बारिश नहीं हुई। किसान बेहद चिंतित थे, लेकिन फिर दो दिन तक लगातार बारिश हुई तो सबके चेहरे खिल उठे। उन्होंने खेतों में बीज खाद डाली। सबको उम्मीद थी कि इस बार फसल बहुत अच्छी होगी। लेकिन कुछ दिन बीते तो बारिश ने फिर से अपना मुंह मोड़ लिया और देखते ही देखते लंबा वक्त बीत गया। खेतों में पड़े बीज सूख गए। बारिश को नहीं आना था तो वह नहीं आई। सारे गांव में दुख का माहौल था। लगभग अकाल की स्थिति थी। कई घर तो ऐसे थे, जहां खाने के लिए दाना तक नहीं था। मान सिंह की हालत भी बुरी तरह से बिगड़ चुकी थी उसने अपनी कार भी बेच दी थी, लेकिन अब उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी। हालात यहां तक बिगड़े कि एक दिन उसके घर में चूल्हा भी नहीं जला। बहुत दुखी होकर वह प्रणाम सिंह के घर गया तो देखा कि वह गाय का दूध लेकर शहर बेचने जा रहा है। उसने कहा, ‘प्रणाम, तुम दूध बेचने शहर जाते हो तुम्हें शर्म नहीं आती?Ó प्रणाम सिंह ने कहा, ‘इसमें शर्म की क्या बात है। बुरे वक्त में अपने खाली समय का सदुपयोग करने में शर्म कैसी?Ó मान सिंह ने कहा कि वह तो सोच रहा है कि अपनी जमीन बेच दे और शहर में जाकर कोई दूसरा काम शुरू करे, क्योंकि खेती-बाड़ी करके तो आज ऐसी स्थिति है कि घर में चूल्हा भी नहीं जल पा रहा। प्रणाम सिंह ने कहा, ‘भैया, हमारे पिताजी ने बहुत मेहनत करके यह जमीन हमारे लिए जोड़ी है। इसे बेचने का विचार भी अपने दिमाग में मत लाओ। रही बात खाने-पीने की तो मैं तुम्हारे घर आने वाले छह महीने के लिए अनाज और दूसरी चीजें भेज देता हूं। चाहो तो छोटे-मोटे खर्च के लिए कुछ रुपये भी ले जाओ।Ó मान सिंह ने आश्चर्य के साथ कहा, ‘अकाल के कारण जब पूरा गांव परेशान है, तब तुम परेशान नहीं दिख रहे हो, यह कैसे संभव हुआ?Ó प्रणाम सिंह ने कहा, ‘पिछले वर्ष फसल के समय जब हमारे पास बहुत अधिक पैसा आया तो उसमें से एक हिस्सा अगली फसल के लिए रखा। एक हिस्से से अपनी जरूरत का सामान खरीदा और एक हिस्से के गहने बनवा लिए। अब अगली फसल की बुवाई होगी तो किसानों के पास पैसे नहीं होंगे और वे साहूकारों के चंगुल में फंस जाएंगे। लेकिन मैंने जो गहने बनवाए थे, उन्हें बेच दूंगा और यदि फसल अच्छी हुई तो फिर से खुशहाली मेरे घर लौट आएगी।Ó मान सिंह ने कहा, ‘गहने बेचोगे तो तुम्हें दुख नहीं होगा?Ó प्रणाम सिंह ने उत्तर दिया, ‘दुख कैसा भैया, गहने तो होते ही इसलिए हैं कि संकट के समय काम आएं। हमारा जीवन तो सुख और दुख से मिलकर ही बनता है। जब सुख था, तब मैंने अपना संयम नहीं खोया और आज जब दुख है, तब भी मैं अपना धीरज नहीं छोड़ रहा हूं।Ó छोटे भाई प्रणाम सिंह की बात सुनकर मानसिंह की आंखों से आंसू बह चले। तभी उन्होंने देखा कि उनके पिता और मां दरवाजे पर खड़े होकर उनकी बातें सुन रहे हैं। रघुराज सिंह ने पत्नी से कहा, ‘मैंने उस वक्त जो बात तुमसे कही थी, अब शायद तुम मेरी उस बात का अर्थ समझ गई होंगी। प्रणाम सिंह अच्छे-बुरे में एक-सा रहता है इसलिए उसे सारी जिम्मेदारी सौंपनी चाही थी।Ó रघुराज सिंह की बात सुनकर उनकी पत्नी ने सिर झुका लिया। दोनों भाइयों ने रघुराज सिंह के पैर छुए तो उन्होंने कहा, ‘प्रणाम पर तो मुझे पूरा भरोसा था, लेकिन अब मुझे उम्मीद है कि मान सिंह भी जीवन का सही अर्थ समझ गया होगा, इसलिए अब मैं निश्चिंत होकर अपनी जमीन-जायदाद दोनों भाइयों में हमेशा के लिए बांट सकता हूं।Ó मान सिंह ने कहा, ‘नहीं पिताजी, आप सारी जमीन-जायदाद की जिम्मेदारी प्रणाम को ही दे दीजिए। जिस दिन मैं यह सीख जाऊंगा कि सुख का समय मौज-मस्ती में नहीं बिताना है और दुख के समय आंसू बहाने में वक्त नहीं गंवाना है, उस दिन मैं अपना हिस्सा प्रणाम से ले लूंगा।Ó यह कहकर उसने प्रणाम सिंह को गले लगा लिया। उन दोनों भाइयों को गले मिलता देखकर रघुराज सिंह के चेहरे पर गहरे संतोष की चमक खिल उठी।
– अशोक जमनानी
श्री रामचरितमानस की सीख
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं।
दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।।
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी।
छाड़िअ सोच सकल हितकारी।।

मूर्ख व्यक्ति सुख में हर्षित होते हैं और दुख पडऩे पर रोते-बिलखते हैं, पर धीर पुरुष दोनों ही स्थितियों में अपने को समान रखते हैं। हे सबके हितकारी महाराजा! आप विवेक से बिचार कर जरा-सा धैर्य धारण करिए, और शोक का परित्याग कर दीजिए। राम वन गमन के पश्चात महाराज दशरथ के अत्यंत निकटस्थ विश्वासपात्र मंत्री सुमंत श्रीराम, सीता और लक्ष्मण को गंगा तट तक छोड़कर आए तो अयोध्या में अर्धमूर्छित महाराज दशरथ से ये वचन मंत्री ने कहे। इसमें बार-बार धैर्य रखने की बात कही गई है। जीवन में में जितनी भी दुर्घटनाएं होती हैं, वे अधिकतर धैर्य के अभाव में ही होती हैं। और फिर, वह अधीरता दुख को और इसलिए बढ़ा देती है कि जो गलती व्यक्ति ने अधीरता की पहले की थी, उसे न समझकर अधीरता में ही समाधान खोजता है। इससे उसका दुख बढ़ता ही जाता है। इसीलिए सुख में भी अधीर न होकर सम रहने की बात की गई, दुख का मूल कारण सुख में अधीर होना ही होता है। कौशल्या जी ने भी दशरथ जी को धैर्य धारण करने की ही सलाह दी :
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी।। धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहीं त बूड़िहिं सब परिवारू।। धैर्य के अभाव में एक यह दुष्परिणाम होता है कि व्यक्ति समय, समाज, परिवेश को भूल जाता है। इसीलिए भगवान धनुष तोडऩे के लिए जब चले तो उतावले होकर न चलकर, बड़े संयम से चले। सहजहिं चले सकल जग स्वामी।। दशरथ जी को सुमंत और कौशल्या जी यह नहीं बता रहे हैं कि पहले आपने क्या किया? अपितु यही उनके बोलने का संयम है कि वे यह समझा रहे हैं कि अब क्या करना चाहिए। क्या करना चाहिए, यदि यह ज्ञात हो जाये तब क्या कर चुके, इसका ज्ञान स्वत: हो जाता है।
-संत मैथिलीशरण (भाईजी)
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