बहुत पुरानी बात है। जयनगर नाम का एक बहुत समृद्ध राज्य था। वहां का राजा बहुत दयालु और जनप्रिय था। लेकिन संतान का न होना उसके जीवन की सबसे बड़ी कमी थी। एक दिन बूढ़े मंत्री ने उन्हें सुझाव दिया कि क्यों न आप वन में आश्रम बनाकर रह रहे कुलगुरु के पास जाकर आशीर्वाद लें। शायद उससे समस्या का समाधान हो जाए। राजा को मंत्री का यह सुझाव पसंद आया और वे रानी के साथ वन में अपने कुलगुरु के आश्रम की ओर चल पड़े। कुलगुरु ने जब उन्हें देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए और जब राजा ने उन्हें अपनी समस्या सुनाई तो उन्होंने कहा कि मेरा आशीर्वाद है कि तुम्हारे यहां एक वर्ष के भीतर ही पुत्र का जन्म होगा। कुलगुरु का आशीर्वाद फलित हुआ और राजा के यहां एक वर्ष बीतने से पहले ही पुत्र का जन्म हुआ। राजकुमार बड़ा होने लगा तो राजा ने सोचा कि इसकी शिक्षा सर्वोत्तम होनी चाहिए। यही सोचकर उन्होंने अपने सेनापति से कहा कि पांच ऐसे व्यक्ति ढूंढ़ कर लाओ, जिनमें से एक सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो, दूसरा सर्वश्रेष्ठ गदाधारी हो, तीसरा श्रेष्ठ तलवार चलाने वाला हो, चौथा मल्लयुद्ध में निपुण हो और पांचवा सर्वश्रेष्ठ घुड़सवार हो। सेनापति ने कुछ ही दिनों में ऐसे पांच लोगों को तलाश लिया। राजा ने उन्हें बहुत सम्मान के साथ राजकुमार का आचार्य नियुक्त किया। समय बीतता गया और जब राजकुमार युवा हुआ तो वह देश का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, घुड़सवार, मल्लयुद्ध (कुश्ती) में निपुण, श्रेष्ठ गदाधारी तथा सर्वश्रेष्ठ तलवारबाज बन चुका था। राजा का अत्याधिक प्रिय और युद्ध प्रवीण होने के साथ-साथ युवा अवस्था के कारण राजकुमार बहुत घमंडी हो गया। वह अपने सामने किसी को कुछ समझता ही न था और अपने सम्मान के प्रति वह आवश्यकता सेे अधिक सजग था। कोई उसके सामने सिर उठाकर बात नहीं कर सकता था। आसपास के छोटे-छोटे राज्यों की संपदा पर भी उसकी नजर बनी रहती और वह उन पर आक्रमण करता रहता। उसका लोभ दिन पर दिन बढ़ता जाता था। साथ ही साथ गुस्सा भी हमेशा उसकी नाक पर ही रहता था। कुछ चापलूसी करने वाले दोस्तों ने उसे स्त्रियों के प्रति भी गलत आचरण का अभ्यस्त बना दिया था। धीरे-धीरे पूरे राज्य में उसके बारे में बातें होने लगीं और वे बातें जब राजा के कानों तक पहुंची तो राजा हैरान रह गए। उन्होंने अपने मंत्री से कहा कि मुझे राजकुमार को लेकर कुल गुरु के आश्रम जाना चाहिए, क्योंकि वही हैं जो राजकुमार को सही रास्ते पर ला सकते हैं।
लेकिन राजकुमार ने कहा कि वह किसी आश्रम में नहीं जाना चाहता। राजा ने कहा वहां एक ऐसे व्यक्ति हैं जो तुमसे हर बात में श्रेष्ठ हैं। यह सुनते ही राजकुमार का अहंकार जाग उठा। उसने कहा, मुझसे श्रेष्ठ कोई है ही नहीं। तब राजा ने कहा कि यदि वे तुमसे श्रेष्ठ न हुए तो मैं अपना सारा राजपाट तुम्हें सौंपकर संन्यास ले लूंगा। राजकुमार ने उनकी बात मान ली। जब वे कुलगुरु के आश्रम में पहुंचे तो राजकुमार ने देखा कि एक बहुत दुबले वृद्ध व्यक्ति को राजा ने दंडवत प्रणाम किया। राजा ने राजकुमार से कहा, यही हमारे कुलगुरु हैं। राजकुमार उनकी बात सुनकर हंसने लगा और उसने कहा, मैं संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, घुड़सवार, मल्लयुद्ध में निपुण हूं। तलवारबाजी और गदा युद्ध में भी मेरा कोई सानी नहीं है और आप कहते थे कि आप के कुलगुरु मुझसे श्रेष्ठ हैं। जबकि सामने खड़े ये बूढ़े व्यक्ति तो ठीक से खड़े भी नहीं हो सकते।
कुल गुरु ने हंसकर कहा, ‘तुम ठीक कहते हो राजकुमार, लेकिन मैं कैसे मान लूं कि तुम सारी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ हो?
तब राजकुमार ने कहा कि आप चाहें तो मेरी परीक्षा लेकर देख लें। कुल गुरु ने कहा, ‘ठीक है, यदि तुम सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो तो वायु को भेदकर दिखाओ, गदा युद्ध में निपुण हो तो सामने जल रही अग्नि को पराजित करो, तलवारबाजी जानते हो तो यह जो नदी है इसे काटकर दिखाओ, सबसे अच्छे घुड़सवार हो तो तुम्हारे सामने जो पृथ्वी है, इसे पीछे छोड़ कर बताओ और यदि तुम सबसे अच्छे पहलवान हो तो आसमान को नीचे गिराकर दिखाओ।
उनकी बात सुनकर राजकुमार हंसने लगा और उसने कहा कि मैं तो क्या, संसार का कोई भी योद्धा ये काम नहीं कर सकता। कुलगुरु ने कहा कि मैं तो बहुत बूढ़ा और कमजोर हूं, लेकिन यदि चाहूं तो ये सारे काम बहुत आसानी से कर सकता हूं। उनकी बात सुनकर राजकुमार ने कहा, ‘यदि आपने यह सब करके दिखा दिया तो मैं आपका शिष्य बन जाऊंगा और आप जो कहेंगे हमेशा वही करूंगा। कुलगुरु मुस्कराए और उन्होंने एक तीर उठाया और अपनी मु_ी बांधकर कहा, ‘देखो मेरी मु_ी में वायु है मैं इसे तीर से भेद देता हूं। उन्होंने अपनी मु_ी के ऊपरी हिस्से में तीर रखा और कहा देखो मैंने वायु को भेद दिया। फिर उन्होंने कहा, गदा से अग्नि को पराजित करना है तो लकड़ी के ऊपर प्रहार करो लकडिय़ों पर प्रहार करते ही अग्नि बुझ गई और उन्होंने कहा देखो अग्नि हार गई। इसके बाद उन्होंने तलवार उठाई और नदी के किनारे को काटा तो नदी दो भागों में विभक्त होकर बहने लगी उन्होंने कहा देखो तलवार ने नदी को काट दिया। फिर उन्होंने कहा कि पृथ्वी से आगे निकलना चाहते हो तो अपने घोड़े का मुंह मोड़ लो। घोड़े का मुंह मोड़ते ही उन्होंने कहा तुम्हारे सामने जो पृथ्वी थी, वह पीछे छूट गई। इसके बाद उन्होंने एक बड़ी-सी थाली में पानी भरा और कहा इसमें देखो। राजकुमार ने देखा जल में आकाश दिख रहा था। गुरु ने कहा, देखो मैंने आकाश को नीचे गिरा दिया। उनकी बातें सुनकर राजकुमार आश्चर्यचकित रह गया और उसने कहा कि मुझे लगता था कि शरीर की ताकत ही सबसे बड़ी होती है, लेकिन आज मुझे लग रहा है कि कोई और शक्ति है, जो सबसे बड़ी है।
कुलगुरु ने बहुत प्रेम से उसके माथे पर हाथ रखा और कहा कि वह शक्ति ज्ञान की है। वह ज्ञान, जो सत्य है। ज्ञान सत्य होता है तो वह स्वयं ईश्वर की तरह ही होता है, लेकिन यह ईश्वर स्वरूप सत्य ज्ञान केवल उसी हृदय में निवास करता है, जिस हृदय में काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, राग, द्वेष ये सब न हों। अब राजकुमार के घमंड का चक्रव्यूह नष्ट हो चुका था। वह बहुत दिनों तक कुल गुरु के साथ उनके आश्रम में रहा और जब लौटकर राजधानी गया तो उसका हृदय ज्ञान से परिपूर्ण था। अब उसके पास शक्ति के साथ-साथ वह ज्ञान भी था, जो सत्य का प्रतिनिधि बनकर स्वयं ईश्वर स्वरूप था। राजा ने कुछ समय बाद उसे राजगद्दी सौंप दी और वह एक ऐसे प्रजापालक राजा के रूप में प्रसिद्ध हुआ, जो बहुत शक्तिशाली होने के साथ-साथ सभी दुर्गुणों से मुक्त होकर वह हृदय धारण करता था, जिसमें ज्ञान रूपी वह सत्य था, जो ईश्वर सदृश्य था।
– अशोक जमनानी
श्री रामचरितमानस की सीख
काम कोह मद मान न मोहा।
लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया।
तिन्ह के ह्रदय बसहु रघुराया।।

रामचरितमानस के अयोध्याकांड में महर्षि बाल्मीकि जी ने ये पंक्तियां भगवान राम से तब कहीं हैं, जब वे सीता जी और लक्ष्मण के साथ वन में अपने रहने के लिए स्थान पूछ रहे थे। तब बाल्मीकि जी ने पहले तो 14 प्रकार के भक्तों के हृदय में रहने का संकेत किया और बाद में उनसे चित्रकूट में निवास करने का अनुरोध किया। ये पंक्तियां आठवें प्रकार के भक्त के हृदय का वर्णन है, जिसमें बाल्मीकि जी कहते हैं जिन भक्तों के मन में काम, क्रोध, मद, मान और मोह न हो और लोभ, क्षोभ के साथ राग और द्वेष भी न हो। जिन भक्तों के हृदय में कपट, दंभ और माया न हो, कृपया आप उन भक्तों के हृदय में रहिए। इसमें बताया गया है कि उन ज्ञानी या भक्तों के हृदय में भगवान रहते हैैं, जिनका अंत:करण (चित्त) बिल्कुल पवित्र हो चुका है, जिनको न तो कुछ दिखाने की इच्छा है, न ही कुछ छिपाने की। माया से न तो वे स्वयं ग्रसित हैं और न ही दूसरों को माया में फंसाते हैैं। क्योंकि किसी भी विकार को अपनी पूर्णता के लिए द्वैत की आवश्यकता होती है और ज्ञानी स्वयं में अद्वैत है। भक्त भगवान के साथ अद्वैत भाव में ही रहता है।
– संत मैथिलीशरण (भाईजी)
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